Saturday, March 17, 2018

सिनेमा दीवाने

बात निकली ही  है तो दूर तक जाएगी, बात ६० के दशक की है जब भारतीय सिनेमा ने धूम मचा रखा  था  | जनता घंटों सिनेमा हॉल के बाहर लाइन में टिकट के लिए लगी रहती | लोग  इस चकाचौंध को देख कर मंत्र मुग्ध थे  और बॉलीवुड से फैशन सड़को पे भी नज़र आने लगा था |  भला मेरे पिताजी कहाँ इस से वंचित रहने वाले थे अभी यौवन के देहलीज पे कदम ही रखा था और सिनेमा की चकाचौंध से सराबोर हो गए थे | भले ही सिनेमा ने बदलाव लाया हो पर एक चीज़ जो सिनेमा तब भी नहीं बदल पायी वो थी समाज की सोच जो की सिनेमा को संस्कृति विनाशक मानती थी और ये मान बैठी थी की समाज के पतन का कारण ये निगोड़ी फिल्म ही है | कोई क्या सोचे इस से पापा को कभी फ़र्क नहीं पड़ा - मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में | मानो पिताजी सिनेमा के लिए और सिनेमा पिताजी के लिए ही बने थे | सिनेमा के नायक स्वतः ही ज़िन्दगी जीने का प्रारूप बनते जा रहे थे और पिताजी भी धीरे धीरे सम्मोहित हो इस कल्प परिवर्तन  को अपना चुके थे | परंतु ऐसे परिवर्तन ज्यादा दिन कहाँ चुप पाते और तब इस तरह के भूत उतरने का एक ही इलाज था चप्पल- जी एक ज़ोरदार चप्पल | पिताजी को खुराक मिली भी पर सिनेमा का भूत और सर चढ़ गया | हाँ ये बताना तो मैं भूल ही गया था की इस सिनेमा की दीवानगी में पापा अकेले नहीं थे पर उनके मित्र कमल चाचाजी भी थे  और अब इन दोनों की लुकाछिपी घर वालों के साथ शुरु हो गई , घर वाले डाल डाल तो ये पात पात | बच बचा के पापा सिनेमा हॉल पहुँच ही जाते और कभी कभार पकडे भी जाते तो जम के धुलाई हो जाती | दादाजी ने आख़िरकार एक तोड़ निकाल ही लिया अगर पिताजी ३ घंटे से अधिक समय घर से गायब होते तो ये मान लिया जाता  की सिनेमा देखने ही गए होंगे और घर पहुँचते ही उनका स्वागत जूते और चप्पलों से किया जाता कभी कभार तो घर में कोई पैसे इधर उधर रख के भूल भी जाता तो ये मान लिया जाता की पैसे पिताजी ने ही सिनेमा देखने के चक्कर में  हाँथ साफ़  किया होगा | वीर तुम बढ़े चलो की तर्ज पे पिताजी भी हर सम विषम परिस्थतियों  से लड़ते हुए अपने सिनेमा की चाहत को बरकरार रखा और एक ऐसा जुगाड़ खोज निकला जिसे साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे | पैसे की समस्या के समाधान के लिए पिताजी टूशन पढ़ाने लग गए अब सब से विकट समस्या से निपटना था समय का तोड़ निकालना |
पिताजी और कमल चाचा के बीच मंथन शुरु हो गया कई कप चाय और दिमाग पर ज़ोर डालने से ऐसा प्रतीत हो रहा था की निदान मिल भी गया था | अंततः ये तय हुआ की एक सिनेमा को देखने में दो दिन का समय लिया जाये गा और एक दिन पिता जी मध्यांतर के पहले सिनेमा देखेंगे और उसी दिन मध्यांतर के बाद कमल चाचाजी सिनेमा देखेंगे और कोई एक दुसरे को कहानी नहीं सुनाएगा और  दिन दोनों लोग उसी प्रकार अदल बदळ कर सिनेमा को पूरा कर लेंगे इससे अब तीन घण्टे घर से बाहर नहीं रहना पड़े गा और मार नहीं पड़ेगी | फॉर्मूला काम कर गया और दादाजी इस खुशी में थे की उनकी पिटाई रंग लाई | पिताजी के पास हर समस्या का समाधान था शुरु में थोड़े विचलित ज़रूर हो जाते पर ठन्डे दिमाग से सोचने पे अंततः कामयाब हो ही जाते |

कवि प्रमोद तिवारी जी के शब्दों में बहुत ही अद्भुत वर्णण हैं |
https://www.youtube.com/watch?v=bwpgcevcXpY
     

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